Sunday 12 July 2015

घर

जब जब गांव की मिटटी छु लेता है वो,
कुछ अजिबसे रोंगटे खड़ें हों जाते बदन पे.

मन निकल लेता है उन पुराने गलियारों की और
उसे नजर आता है बच्चा जो स्कुल की दीवारों कूद के घर भाग जाया करता था .
चौराहे की मिठाई की दुकान,
क्रिकेट के बॉल से फूटे हुए मकान,
अक्सर उसे बचपन की याद दिला देते है.

फिर वो पहुचता है इक मंदिर
जिसे लोग 'घर' पर वो
आज भी 'स्वर्ग' कहता है !!
आज भी 'स्वर्ग' कहता है !!!

जिप्सी

Thursday 9 July 2015

प्राजक्त

आतातरी तुझ्या मिठीत विरघळू दे,
गंध प्राजक्ताचा थोडा दरवळू दे

एव्हाना जगलो एकटाच
सुगंधी जखम थोड़ी भळभळु दे

आल्यासारखे रहा थोड़ी हृदयात
घरास थोड़े घरपण मिळू दे

बेरीज कर तुझ्या-माझ्या जीवनाची
आयुष्याचे गणित थोड़े तरी कळू दे

जिप्सी